Saturday, 29 October 2016

नमस्कार का आनंद* Bliss of Salute


***नमस्कार का आनंद***
नमस्कार की मुद्रा में आनंद ही आनंद है.. बढ़ते जाएगा आनंद जैसे जैसे आप हाथ ऊपर करते जाएँगे.. अनाहद.. विशुद्ध.. आज्ञा.. सहस्रसार चक्रों में...!
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परमात्मा को भी याद करना है तो किसी व्यक्ति के रूप में ही किया जा सकता है.. व्यक्ति यानि जो व्यक्त हो आपके समक्ष, अभिव्यक्त हो आपके समक्ष.. किसी भी माध्यम से...!
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***भीतर की सफाई***

दीपावली के समय जब हम सफाई करने लगते हैं तब पता चलता है कि कितनी गंदगियाँ जमा हो गईं थी... पता नहीं कितने जन्मों से अपने भीतर गए भी नहीं हैं हम, सफाई की बात तो दूर.. पता नहीं कितनी गंदगियाँ भीतर जमा हैं और सफाई में कितने जन्म लगेंगे, जबकि गंदगी दिनोदिन बढ़ती ही जा रही...! भीतर की गंदगी साफ करते रहना चाहिए सबेरे शाम साधना करते रहना चाहिए।
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***अँधयुद्ध***
कल रात्रि साधना में, किसी अज्ञात शक्ति ने मेरे द्वारा महाकाल शक्ति को आदेश दिए कि एक वर्ष तक पूरी पृथ्वी पर हर स्तर पर अँधयुद्ध का आयोजन करे !
॥ जय माँ काली ॥
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आज पृथ्वी पर की सभी समस्याओं का समाधान एक मात्र युद्ध ही है.. श्री कृष्ण का अवतरण हमेशा धर्मयुद्ध के लिए होता है.. मगर इस काल में न कौरव हैं न पाण्डव.. सिर्फ धृतराष्ट हैं.. प्रजातंत्र में हर कोई प्रजा और राजा दोनों एक साथ है.. लेकिन हर कोई मोहान्ध है... तो अँधयुद्ध के बाद ही स्पष्ट हो सकता है कि कौन शुभ के पक्ष से लड़ेगा धर्मयुद्ध में और कौन अशुभ के पक्ष से.. कौन-कौन कौरव हैं और कौन-कौन पाण्डव...!
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जगत ही झूठ है, प्रपंच है, माया है, सपना है.. तो इसमें झूठ बोलिए या सच क्या फर्क पड़ता है..! फर्क सिर्फ इस बात में है कि झूठ या सच जो भी बोला जाता हो उसके पीछे उदेश्य क्या है...!
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(Date- 28.10.2016)




Friday, 28 October 2016

श्री कृष्ण का धर्म * Religion of Sri Krishna*


***श्री कृष्ण का धर्म***
श्री कृष्ण का एक ही धर्म था- अशुभ का दमन किसी भी प्रकार से और आज भी पृथ्वी पर एक यहीं धर्म सच्चा धर्म माना जाएगा...!
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मैं उसे ही शुभ कह सकता हूँ जो अशुभ का विरोध, दमन करे.. अशुभ से युद्ध करे...!
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***साधना और समर्पण***
बुद्ध, महावीर, मीरा जैसा मैं संकल्प संपन्न नहीं था जो साधना की सर्वोच्च शिखर पर पहुँच कर समर्पित होता, तो पहाड़ की तराई में ही मैंने सर पटक दी अपना...!
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समर्पण के बाद साधना की चिंता गुरु/भगवान के सर चली जाती है.. वो स्वयं साधना करवाते चले जाते हैं.. यह मेरा अनुभव है...!
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साधना का शिखर यहीं है कि साधक को यह दिखाई पड़ने लगता है कि कितना भी ऊँचा चढ़े कोई आकाश हमेशा उतना ही ऊँचा रहता है जितना पहले था, उसे छू पाना असंभव है.. परमात्मा को पाना असंभव है.. और खुद को मिटा पाना भी असंभव है.. यह भी परमात्मा की हाथों में ही हैं...!
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***ओशो के उत्तराधिकारी***
ओशो के जो उत्तर इस काल में होने चाहिए, उन्हें देने का अधिकारी उनका हर शिष्य-शिष्या है.. हर ओशो शिष्य-शिष्या ओशो का उत्तराधिकारी है...!
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संयास का गैरिक वस्त्र पहनने वाले के भीतर धधकती अग्नि का प्रतीक है, जो हर प्रकार की भीतरी और बाहरी अशुद्धियोँ को जला कर शुद्ध दे ...!
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(Date- 27.10.2016)